Friday 16 September 2011

घर ,,, पुराना घर ..

पुराना घर जब आज फिर
नज़रों के सामने से गुज़रा
यकायक यकीन ना हुआ
कदम चल पड़े भीतर ,
अन्दर का नज़ारा बड़ा ग़मगीन था ,
जो था वो बिखरा हुआ
और बेहद संगीन था
वो दरवाज़े अब थोडा
बुज़ुर्ग हो चले थे ,
लेकिन आने वालो का एहतराम
और जाने वालो को
आवाज़ देना नहीं भूलते
वो खिड़कियाँ आज भी
हवा के इंतज़ार में
पत्ते की तरह हिलती रहती हैं
फड़फड़ाती  रहती हैं
और एक कोने में एक छोटा सा
स्टूल पड़ा था
जैसे घर का पुराना वफादार हो कोई
जब बुलाओ चला आता हो,
साथ ही एक बेहद पुरानी
दरख़्त के टुकडो से बनी
एक मेज़ रखी है बीचो बीच
जिनसे जुडी हैं अनगिनत यादें
टूटी हुयी सी उस मेज़ पर
आज बरसो बाद हाथ फेरा
तो लगा उसमे मुझसे
ज्यादा जान बाकी है,
ज्यादा सब्र है,
ग़म को छुपाये रखने का,
आज भी उस पर
पेंसिल से बनाये हुए कार्टून
साफ़ झलकते हैं ,
माँ के ऐनक की परछाईं
अब तक वैसी ही है
वो छुटकी का उसके
नीचे छुपना , मेरा ढूंढना
और माँ का एक चपत लगाना
बड़े दद्दू की नाश्ते की
प्लेट का अक्स वैसे ही सलामत है
जैसा उस रोज़ था ,
साथ में वो भी है
तीन टांगो वाली कुर्सी
एक पाया किचन के कोने
में पड़ा है सालों से,
और तो सब था
एक मैं ही नही था
उस मेज़ के पास
और आज भी
और तो सब है
बस एक मैं ही नहीं हूँ
उस मेज़ के पास