Friday 16 September 2011

नदी और समंदर ...

इक दिन सागर बोला नदी से,
तू क्यों मुझमे आकर मिलती है,
आखिर मैं तनहा अकेला ,
नमक का ढेर ही तो हूँ मैं ,
खुद में सिर्फ चंद सीपियाँ ,
और मोती ही तो संभाले रखता हूँ
और तू ज़िन्दगी से भरी,
उछलती , मचलती,
मुडती, तेज़ चलती,
लोगो से मिलती, जीवन देती है ,
सबके हाथों को ,
मीठे पानी से भर देती है,
सदियों से सोच रहा हूँ अकेला,
फिर भी समझ नहीं आता है,
आखिर मैं किस काम का ,
और तुझे मुझने मिलना
दुनिया में कौन सिखाता है..
मुस्करायी नदी,
और हौले से बोली,
तुझ में मिलना , सुकून देता है मुझे,
तेरा आकार बढ़ाने का ख्याल ,
जूनून देता है मुझे ,
पर ना जाने क्यों तू
अपने आकार से घबराता है,
अरे ये सब तो,
विधि का विधान कहलाता है ,
मिलते हैं राह में हजारों,
कहते हुए की ,
तेरा मेरा सदियों पुराना नाता है,
जानती हूँ मैं बस इतना ,
ये रिश्ते ऊपर  वाला बनता है ,
मैं तो तुझमें तब तक गिरूंगी,
जब तक तू मुझ सा नहीं हो जाता है,
और याद रख ,
एक दूसरे में खुद को खोना ही
अमर प्रेम कहलाता है...

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