Thursday 11 April 2013

A naked truth

एक लगभग सवा साल पुरानी कविता ..और उसका सलिल चाचू  का किया हुआ हिंदी अनुवाद ... :) ये मेरे दिल के बेहद करीब है.. वजह ? सलिल चाचू  का अनुवाद ..और मेरी पहली अंग्रेजी कविता। सच !! सलिल चाचू का खूबसूरत अनुवाद, किसी पोस्ट में जान डालना कोई इनसे सीखे :) स्कूल हैं पूरे भावों के !!

एक नंगा सच
दबा एक बर्फ के दरिया के अंदर
गर्मियां आयीं थीं जब
बहता था ये

उन पर्बतों के दरमियाँ से
और चलता था बड़ी रफ़्तार से
गलियों से होकर वो गुज़रता था
समंदर से गले मिलने की चाहत में.
इस सफर में
यह किसी ने भी न देखा
और निगाह डाली नहीं इक शख्स ने
कितने लोगों ने किया अनदेखा उसको
और कुछ लोगों ने उसको रोक कर रखना भी चाहा
पर वो था
चलने पे आमादा
सो चलता ही रहा वो
उसको साहिल पर नहीं रहना था
जाना था उसी फैले समंदर में
दफ़न हो जाना था गहराइयों में उस समंदर के
जो आखिर मिल गया उसको.
वो नंगा सच
उन्हीं गहराइयों में है पड़ा
और है दबा वो रेत के अंदर
चमकता है वो अक्सर मछलियों सा!!

A naked truth
buried under the snow
when came the summer
it started to flow
ran across the mountains
the flow was fast
travelled through lanes
the ocean was the last
 in the journey
nobody noticed
nobody glanced at
many of them overlooked
many of them tranced at
but it was
destined to pass
so it did
to get into mid
of a place so vast
it was ocean ,its depths
which came at last
naked truth is now
lying in the depth
covered with sand's blow
and fishes that glow.

 असली कविता यहाँ पर भी मौजूद है : The Naked Truth

Monday 8 April 2013

अमरपक्षी


अच्छी तरह से याद है, दसवीं में था वो चैप्टर।अंग्रेजी की मेनकोर्स बुक में आखिरी चैप्टर था। इस चैप्टर से मिलती जुलती मूवी बनी थी बाद में "i am legend" (बस नाम नहीं याद है उस चैप्टर का ) उस चैप्टर ने दो बातें सिखाईं। पहली " master of one" से बेहतर होता है "jack of all" .. दूसरा एक अरबी पौराणिक कथाओं में एक पक्षी होता है "फीनिक्स" या अमरपक्षी। इन दोनों ने एक बात सिखाई, जिसके भरोसे आज तक खुद को सँभालने में मुश्किल नहीं हुयी थी,ये की चाहे जितनी भी मुश्किल आ जाये, इन्सान अपने थोड़े या ज्यादा , जितना भी है, उतने दिमाग के भरोसे और अपनी सोच के बल पर हर परिस्थिति से उबर सकता है।  
          "jack of all" आपको बताता है कि अपूर्णता भी ताकत है। अलग अलग क्षेत्र में जानकारी रखना आपको मुश्किल वक़्त में फायदा देता है और आपके अन्दर एक विश्वास का संचार करता है। 

       और फीनिक्स .. ...जितना जानने की कोशिश करता हूँ .. खोता चला जाता हूँ।

(आज बैठे बिठाये बन गया ये ..अमरपक्षी
पहले जल जाता है वो
फिर खुद की राख से,
दुबारा ,
बार बार,
पनपता है,
खड़ा हो जाता है,
उड़ता है, 
फिर जल जाता है,
ना चिड़िया है,
न इन्सान है,
वो सार है,
इन संसार का,
एक नसीहत है,
किस तरह से,
मैं फिर उड़ सकता हूँ,
मैं भी उड़ सकता हूँ,
जलने के बाद,
बुझने के बाद 


Tuesday 2 April 2013

ज़ीस्त.......



अजीब सी  होती है न ज़िन्दगी। कभी कभी  नहीं आता की चौराहे पर खड़े हैं या दो दोराहे पर। बस लगता है जिस तरफ ज़िन्दगी चली जा रही , जाने दो। और फिर कुछ समय बाद लगता है कि यूं ही चलता तो कितना अच्छा था। कभी लगता है की कितना कुछ पाना है, कभी लगता है कितना कुछ खो दिया। कितनों को खो दिया , कितने छूट गए और कितने साथ रह गए। एक बनवारी की दुकान जैसे लगती है ज़िन्दगी।


ये दरिया-ए-ज़ीस्त है दोस्त,
जो बहता है तो बहने दो,

दरिया का हर पल समन्दर है,
ग़र जिंदा रहता है तो रहने दो,

खामोशियाँ काबिज़ हैं धडकनों पर,
दिल कुछ कहता है तो कहने दो,

मेरे बिना मैं रह लेता हूँ जब,
वो कुछ सहता है तो सहने दो,

Sunday 24 March 2013

औरत

सर पर सिन्दूर ,
सिन्दूर को ढकता आँचल,
एक सुर्ख बिंदी,
रत्ती भर फीकी मुस्कान
तथाकथित विरासत में मिली,
हया की चादर,
और आँखों में हज़ारों जज़्बात,
मैं चेहरा हूँ एक औरत का,
और यही है मेरी औकात.

सकुचाए से कंधे ,
जैसे वक्षों को घेर कर,
एक आवरण देने की कोशिश में हों,
किसी बाहरी नज़र से,
पर मजबूरन इतना ही झुकते हैं सिर्फ,
कि पीठ ना उघड़ जाए,
ये पर्दा ही मेरा दिन और रात है,
क्या करूं, औरत हूँ मैं ..
और यही मेरी औकात है.

हाथ में पल्लू का कोना,
जैसे चाहता हो पूरे पेट को ढकना,
कोई देख ना ले वरना,
कोख परायी हो जायेगी,
और कमर कि तमाम उपमाएं,
अपनी गरिमा खो देंगी,
सब सुन्दर है, नज़रों कि करामत है,
और यही मेरी औकात है ..

कटी से अंगिया हटी,
आत्मा कटी, आबरू घटी,
सती भी मैं, रति भी मैं,
सीता-अहिल्या और मूढमति भी मैं,
ममता,वात्सल्य और प्रजनन में  ,
मेरी ताकत भी है और मेरी मात है,
और यही मेरी औकात है .

पैरों में संसार पड़ा है,
या मैं पैरों तले पड़ी हूँ .
मैं आज भी एक माँ, बहन,
बीवी, बेटी और सखी हूँ,
औरत तो मैं आज तक नहीं बन पायी,
लाख कोशिश कर ली पर,
जो पूरी ना हुयी वो यही एक बात है,
मैं औरत हूँ,
और यही है मेरी औकात..
और यही है मेरी औकात





Thursday 21 March 2013

मैं औरत हूँ

थोड़ा सा सुकून मिले तो सोच लूं,
मैं भी एक इन्सान हूँ,
नहीं हूँ मैं मुर्दा जिस्म,
मैं भी इक जान हूँ,

ये सुकून मिले ही तो कहाँ मिले?
अपनों में?
या सपनो में ?
क्यों की मैं औरत हूँ,
परायों में खोज जो सुकून पाया
उठ गयी आवाज़ मैं बेगैरत हूँ,
...क्यों की मैं एक औरत हूँ???

पूजते हैं बुत बना कर,
देखते हैं बुत बना कर,
न मैं मिट्टी हूँ,
न मैं पत्थर ,
फिर क्यों मैं इक मूरत हूँ,
... क्या सिर्फ इसलिए
की मैं एक औरत हूँ ??

मान सम्मान जो मुझसे जुड़ा है
सिर्फ तुम्हारी आँखों का नशा है,
जिस्म भेदते तुम हो मेरा,
और शील मेरा भंग हुआ करता है ?
मैं नहीं महज़ एक जिस्म,
नही महज़ मैं खूबसूरत हूँ,
मैं इस जहां की,
इस दुनिया के परिवार की,
इस संसार की ज़रुरत हूँ,
क्यों की मैं ...
औरत हूँ ..
क्योकि मैं औरत हूँ …

Wednesday 6 March 2013

आखों का कोरापन

लोग कहते हैं ..ये एहसास कातिल हो सकते हैं,  शायद सच है। लेकिन  सुना था सच तो कुछ भी नहीं होता , जो शायद मेरे लिए सच है, वो मेरे सबसे बड़े शत्रु के लिए भी हो सकता है , और मेरे सबसे करीबी के लिए झूठ। भावनाएं भी सापेक्षिक होती है ... समय के सापेक्ष , अवसर के अनुकूल ...सांसारिक मोह माया समझ नहीं आती सिवाय इसके की "तुम" झूठ थे .. कुछ भी सच नहीं होता।


अक्सर कहा करता था वो मुझसे ,
वो उससे मेरी वफ़ा,
और ज़माने से मेरी बेवफाई पर मरता है,
पर मेरी आँखें कहती थीं,
कोई उससे बेइन्तेहां मुहब्बत करता है,
पर ज़िक्र हमेशा रहता था,
उसकी बातों  में मेरी सच्चाई का,
कहता था , तुम अच्छे हो,
सारे जहां से अलग हो, के तुम सच्चे हो,
पर कैसे समझाऊँ उसको,
सच्चाई, वफ़ा, इमानदारी, सब कोरी बातें हैं,
सब कुछ सापेक्ष होता है,
क्या बताऊँ जिस सच्चाई के तुम कायल हो,
उसने मुझे कितनी बार ठगा,
जिस वफ़ा को तुम मेरी खूबी कहते हो,
उसने छोड़ा न किसी को सगा ,
सबको सच दिखाया, पर खुद से कहा झूठ,
कितनी ही बार ऐसा हुआ,
खुद से हुए हम खफा, खद से गए रूठ,
इसीलिए कहा करते हैं हम,
ईमान, धरम, सच, वफ़ा और करम,
सिर्फ है धोखा,आँखों का वहम,
और आखिरकार धीरे धीरे ओढ़ लिया हमने ,
आखों का वो कोरापन ...
अब न आँखें बोलती हैं ,
न तुम सुनने को मौजूद होते हो पास में ,
सिर्फ एक कोरापन है,
आँखों में, एहसास में ...  

                                                      

Saturday 16 February 2013

गुलाब

कहते हैं पहला प्यार भुलाये नहीं भूलता, और यादें ज़िन्दगी से कब्र तक सबसे वफादार साथी होती हैं। जितनी मिलती हैं , उतना ही हम छोड़ भी जाते हैं ..शायद!!

तेरे अलफाज़ बह गए ,
वक़्त की लहर में ,
जो ऊंची, छोटी,
हलकी, सूखी,
होती थीं।

काली चाय की
खाली केतली सा,
रह गया हूँ मैं,
चाय के बाद ,
कालापन नहीं जाता
अब

धुंआ उठता था
तुम्हारी यादों का,
लेकिन
अब चूल्हे की आग
ठंडी हो चली है

कब्र के ऊपर
गुलाब उग आये हैं अब ..
लोग कहते हैं,
गुलाब दफ्न नहीं होते,
लोग कहते हैं,
गुलाब दफ्न नहीं होते,
नहीं होते .....

Wednesday 13 February 2013

कुछ तेरा कुछ मेरा

            
          दिल कमबख्त दुनिया का सबसे खतरनाक हिस्सा होता है, और मुसीबत तब पैदा होती है जब हर इन्सान के पास एक अदद दिल पाया जाने लगता है. जैसी की इंसानी फितरत है, दूसरे की चीज़ों के प्रति आकर्षण से बहुत जल्दी ग्रसित हो जाता है. यही हाल दिल के साथ भी है. दूसरे को देख कर उसे पाना चाहता है, गोया इन्सान न हुआ कोई सामान हो गया. अब दिल तो ठहरा दिल , दिमाग से कोई वास्ता नहीं है. क्या करे बेचारा. अजीब कशमकश में उलझा रहता है. तुम हो. तुम नहीं हो, तुम हो सकते हो, तुम नहीं हो सकते हो , वगैरह वगैरह .


(चित्र:  आसमान, कल्पना और काल्पनिक आसमान ) 

 मैंने अक्सर महसूस किया है,
तेरे और मेरे दरमियान
कुछ तो है
कुछ है जो तेरा है,
कुछ है जो मेरा है
वो कुछ तो है

शायद वो रात है,
जिसमें चाँद निहारता है तुम्हे,
और  मैं मीलों दूर से
उस चाँद को,

शायद वो हवा है,
जो मेरी साँसों से होती हुयी,
तुम्हारे चेहरे को सिर्फ छू कर
गुज़र जाती है ,

शायद वो खुदा है ,
तुझमें दिखता है,कभी
मंदिर में , मस्जिद में,तुझ सा
बस नही हो पाता,

बहुत कुछ है तेरे- मेरे बीच
कुछ है जो अँधेरा है,
कुछ है जो सवेरा है,
कुछ तो है
कुछ है जो तेरा है,
कुछ है जो मेरा है
वो कुछ तो है



 

Monday 4 February 2013

डायरी

अक्सर लोगों को बताते सुनता था , देखता था  और देखते देखते खुद भी शौक पाल बैठा एक डायरी का। लगभग दस बारह साल पुरानी बात है, मैं दसवीं या नौवीं में था शायद। पापा की लाई हुयी एक ठीक ठाक सी डायरी मेरे हाथ लग गयी, और यूं शुरू हुआ डायरियों के साथ मेरा रिश्ता। चोरी से। पापा को लगता था अगर बेटा डायरी लिखता है तो ज़रूर कोई बात है जो बेटा छुपा रहा है या बताना नहीं चाहता। ऐसा नहीं था की वो मुझ पर शक करते थे , लेकिन उन्हें इस बात का पूरा ख्याल रहता था कि वो और मम्मा मेरे सबसे अच्छे राजदार बने रहे। खैर , सिलसिला चलता रहा, डायरियां भरती गयीं, वक़्त चलता रहा। कुछ लोग मिले , कुछ फिसलते गए हाथों से, ....और आज पुरानी डायरियों को देखता हूँ तो सिर्फ यादें ही ज़हन में नहीं आतीं बल्कि हर एक लम्हा रूबरू हो जाता है , एक फिल्म की तरह।
फ़िलहाल ..... वैलेंटाइन वीक आने वाला है ... थोडा सा रूमानी हो जाते हैं !!


पुरानी सी डायरी,
उसमें रखा वो फूल,
जब देखता हूँ उन्हें,
तुम तक पहुँचता हूँ,
जहां तुम दरवाज़े से
मुझे लौटा कर
आवाज़ लगाती हो,
फिर धीमें से कानो में
फुसफुसाती हो
सूखे फूल हैं,
सिर्फ डायरी के ही काम आएंगे
यादें संजोने के लिए,
बनाने वाले ने भी,
क्या खूब चीजें  बनायीं है ,
एक डायरी , और ,एक तुम 
एक वक़्त समेट लेती है ,
और एक मुझे समेट लेती है ,
तुम आज भी
मेरी डायरी में कैद हो ,
और मैं तुम में ,
जो निकल आओ ,
तो यकीन आये ,
ज़िन्दगी कागजों से इतर भी है ..
ज़िन्दगी लफ़्ज़ों  के भीतर भी है ...

Thursday 31 January 2013

चाँद, मैं और औकात ..

जाने किस बात की शर्म करता है इन्सान , जाने किस बात के गुरूर करता है वो। मैं आज तक समझ नही पाया .. दोमुहा व्यव्हार किसके लिए? किस से मुह छिपता है ? किस पर रोब  गांठता है ?  खैर .. डरें नहीं!! ये मैं आपसे नहीं पूछ रहा .. ये तो कल मैंने यूं ही खुद से थोड़ी तफरीह लेने के लिए किया था .. हुआ यूं के मैं कल आईने के सामने खड़ा था और कुछ नयी खुराफात नहीं सूझ रही थी। पहले बड़ा शौक हुआ करता था आईने के सामने यूं दिखना , वो पोज मारना। अब दुनिया के सामने इज्ज़त का फालूदा करने से तो बेहतर आइना ही था। कम से कम हँसता तो नहीं था , और मेरे मन मुताबिक दिखता-दिखाता भी था। तभी, अचानक मन में आया, आज खुदसे सवाल करते हैं। शायद इस बार दिल जीत जाए, पर कम्बख्त इस बार फिर दिल हार गया , दिमाग जीत गया तर्क की बाजी। कुछ सवाल छोड़ गया .. कुछ जवाब ले गया।

तुम्हारे ख्यालों में बसे ,

मेरे ख्यालों की सूरत सा,
चाँद भी धुंधला सा है,
कोहरा है शायद,
इसलिए दिखता कम है आसमान ,
रात ही स्याह नहीं होती ,
दिन भी काले होते हैं ,
जैसे पेड़ों पर  सिर्फ पत्ते नहीं उगा करते ,

दूध के जैसे सफ़ेद होने लगे हैं,

कोयले के टुकड़े,
और
ईमान भी मांस जैसा है,
बिकता है,
कटता है,
पकता है,
बचा खुचा कुत्तों के आगे
डाल दिया जाता है
हड्डियाँ चूसने और फिर
सूंघ कर छोड़ देने के लिए,

कल सड़क के किनारे

एक भिखारी चीख रहा था ,
मैं मांगता तो हूँ मुह खोल कर,
अपनी औकात तो पता है मुझे ,
और आने जाने वाले
कान और आखें झुकाए
सर उठाये शान से ..
चले जा रहे थे .....
अपने घरों की ओर ..


Wednesday 30 January 2013

ईमान ...

किस ईमान की बात करता है खुदा तू ? मेरे ईमान को तो कुत्ते नोच के खा गए है, जिस्म से खून चाट गयीं हैं बिल्लियाँ , और हड्डियों में बेईमानी के दीमक समा गए है कुफ्र और काफ़िर सुन कर हंसी आती है बहुत, गोया सब हज कर के वापस आ गए हैं , उसूलों की तो तुम बात भी मत करना , वो नाराज़ हो मुझसे, लौट वापस अपने जहां गए हैं एक हाथ उठा नहीं किसी की मदद को , वो तालियाँ बजाने वाले हाथ कहाँ गए हैं, उनकी आँखों का पानी नहीं सिर्फ रंग बचा है , और अब वो अपनी तबियत की खैर मनाने काबा गए हैं, नहीं हैं अब मुझमें जज्बातों की खुशबू, एहसासात मेरे कौन जाने , कहाँ गए हैं ... औकात फिर भी मेरी कुछ नहीं उन जमातों के आगे , ज़मीन क्या जो आसमान भी घर में सजा गए हैं,...    

Sunday 27 January 2013

खुदकुशी,

 
कभी कभी ये आसमान भी,
ज़मीन से बिछड़ जाता है,
मैं घंटों तक,
देखता रहता हूँ इसको,
चलता रहता है,
लेकिन दूर दूर से,
पास नहीं आता,
कितना भी बुलाओ,
दूर ही रहता है,
अपने बदन पर हजारों ,
पैबंद टिकाये हुए,
और सबसे मज़े की बात,
चाहे जितना उजाला हो,
या अँधेरा,
वो पैबंद चमकते रहते हैं,
सोचता होगा ये आसमान भी,
ये अकेला है,
या कोई और भी होगा,
इसके जैसा ,
रोज़ जीने वाला,
रोज़ मरने वाला,
हर दिन में दो बार,
ख़ुदकुशी करने वाला,
और,
जवाब खोजते खोजते ,
सो जाता है,
ठंडी ज़मीन पर,
नंगे बदन, बिना ओढ़ने के .....

Monday 21 January 2013

..मुशर्रफ भी आ जायें !!

कुछ बुद्धिजीवी मिले कल शाम रस्ते में, बस में सफ़र के दौरान। लम्बे चौड़े दावे, आंकड़े बांचते हुए। इक पल को तो चिढ सी हुयी, फिर सोचा सफ़र काटने के लिए मनोरंजन अच्छा है, सो सुनने लगा उनके दावे, वगैरह। एक सज्जन जो थोड़े परनब मुखर्जी टाइप थे, बड़े गौर से सबकी बात सुनते फिर उवाचते थे, वहीं दुसरे मुल्ला जी ( कठ्मुल्ला छाप दाढ़ी , पतली मुंशी छाप ऐनक , और जारी-कढाईकारी वाली टोपी थी इसलिए मुल्ला जी ही होंगे ,ऐसा मेरा सशक्त भ्रम है) पान की पीक को एक गाल से दुसरे की तरफ लुढ़काते हुए मज़े ले रहे थे। लेकिन जो सज्जन सबसे ज्ञानी थे वो तीसरे महाशय थे, टी-शर्ट,कोट , जीन्स और सूर्य प्रतिरोधक यन्त्र आँखों पर चढ़ाये हुए माशाल्लाह किसी तुषार कपूर से कम नहीं लग रहे थे। ( तुषार कपूर को तो जानते होंगे न आप )
खैर, बातों का मुद्दा था सामाजिक बदलाव की बहती गंगा में राजनीती की भूमिका, ( जिसमें समाज के बारे में चर्चा नदारद थी)
पहले सज्जन ने मुह खोला : राहुल गाँधी उपाध्यक्ष बन गए।
दोनों हंसने लगे। पहले वाले सज्जन चुप हो गए। थोड़े विराम के बाद तीसरे के बोल फूटे- " सिर्फ उपाध्यक्ष बनने से हमको घोर निराशा हुयी है, उनके पिता जी सीधे प्रधानमंत्री बने थे, और एक ये हैं ..!!! खैर, अब बन ही गए हैं, देर सबेर तो ये होना ही था। आखिर राहुल गाँधी हैं भाई !!
दूसरे सज्जन ने खिड़की खोल के बाहर के वातावरण से पीक के बदले ढेर सारी ठंडी हवा का का आदान प्रदान करने के बात मुह पोंछते हुए कहा -" देखिये , हमें तो सिर्फ सुधरने से मतलब है , वोट काहे लिए देते हैं ?? चाहे वो राजीव गाँधी सुधारे , राहुल गाँधी सुधारें , या नरेन्द्र मोदी ...अगर मुशर्रफ भी आ कर यहाँ के हालत सुधारते हैं तो हम उसमे भी खुश हैं।
दोनों सज्जन मुल्ला जी का मुंह देखने लगे।
सच ही है, जनता को सुधरने से मतलब है, यहाँ तक की दुश्मन से भी आस लगा सकते हैं, लेकिन खुद कोई पहल करने की न इच्छा है, न दम ... लेकिन सुधार चाहिए ...आखिर टैक्स भरते हैं न हम लोग!!
..................................................................
लम्हों की दास्ताँ है ये ज़िन्दगी,
तुम सिर्फ लम्हों की बात करते हो,
दास्ताँ को मत भूलो,
क्यों कि अरसे के बाद,
सिर्फ दास्ताँ याद रहती है,
और लम्हे बीत चुके होते हैं ,,,,
जो बदल सको तो खुद को,
बदलने की कोशिश करो ,
शायद ये ज़िंदगी भी बदल जाये ,
तुम शिकायत करते हो,
वक़्त बदल गया है ,
ज़माना बदल गया है ,
ज़िन्दगी बदल गयी है ,
लेकिन तुम खुद नहीं बदले क्या ?
हर रोज़,
आइने के सामने खड़े हो कर ,
इल्तजा करते हो,
इसी वक़्त, ज़िन्दगी और ज़माने से,
मुझको बदल दो,
तुम बदल जाते हो,
अपनी इल्तजा खुद सुन कर,
और दोष ज़माने को देते हो,
ज़िन्दगी को देते हो,
वक़्त को देते हो,
आज का वजूद नकार कर,
अतीत में टिके रहते हो,
कल में खोये रहते हो,
फिर भी कहते हो,
ज़िन्दगी से कुछ हासिल न हुआ,
वक़्त से कुछ फ़ाज़िल न हुआ ,
अगर आज को देखो,
कल खुद बदल जायेगा ,
वक़्त बदल जायेगा,
ज़माना बदल जायेगा,
ज़िन्दगी बदल जाएगी,,,
और लम्हे भूल जायेंगे ,
कल सिर्फ दास्ताँ रह जाएगी ..
दास्ताँ रह जाएगी ....

Friday 18 January 2013

आगाज़



हर साल की तरह ये साल भी कुछ नया गुजरने वाला नहीं था। इस बात पर यकीन कर के मैंने भी खुद को


समझा लिया होता अगर साल के अंत में दामिनी-निर्भया की दर्दनाक मौत न होती। खैर , मन में काफी उठा पटक चल रही थी और इसी बीच अभिषेक भैया का मैसेज न मिला होता, तो शायद ये साल भी और सालों की तरह साधारण ही गुज़र रहा होता ... इसलिए लम्बे विराम के बाद पहली पोस्ट आपके नाम अभिषेक भैया !!
याद रहेगी वो दो कौफियाँ और वो बेहतरीन मुलाकात ...ज़िन्दगी भर !
एक बेहद खूबसूरत सी जगह , उससे भी लाजवाब बातचीत और सबसे बढ़ कर जो आपने दिया , वो कांफिडेंस था, ...।
अरसे से सोचता था , मैं भी लिखूं। फिर सोचता , पढ़ेगा कौन ..और अगले ही पल मेरी सोच का महल ताश के पत्तो की तरह ढह जाता। ये क़ुबूल करने का दम था कि मेरा इंटेलेक्चुअल लेवल अभी उतना नहीं है जिसमे मैं ब्लॉग लिख सकूं, लेकिन ये कभी नहीं सोचा था कि उसको सुधारूं कैसे ? खैर, उस रोज़ इच्छा ने जोर मारा और सोच के तरकश में एक नया तीर दिखा। ठीक है , मुझे लिखना नहीं आता , लेकिन लिखूंगा तभी तो सीखूंगा !! और फिर आ पहुंचे मैदान में।।
तो इस साल की पहली पोस्ट ..आप सब के आशीर्वाद और अभिषेक भैया के नाम ..!!

खूब यारी निभाते हैं,और वो हमारी यारी की मिसाल देतें हैं,
इधर हम पीछे मुड़ते हैं ,वो अपनी तमाम फौजें निकाल देते है !!


कहते हैं मेरे रहनुमा बन सकते हैं वो तमाम जवाब दे कर,
जो मिलता हूँ उनसे ,वो तोहफे में एक हज़ार सवाल देते हैं !!


लगता है जैसे मेरा उनका नाता कई जन्मों का है,
फिर भी जाने क्यूं जब भी मिलते हैं वो सिर्फ मलाल देते हैं !!


बादलों से आस लगाता हूँ, खेत सींचने के लिए , मैं आया
कह सारे तालाबों में बहा कर भर रंग लाल देते हैं !!


फिर भी हम खुश है उनकी रियासत में ,रहनुमाई में रह कर ,
हमे यकीं है के वो वादों के मुताबिक, सबको ज़िन्दगी खुशहाल देते हैं !!