Tuesday 2 April 2013

ज़ीस्त.......



अजीब सी  होती है न ज़िन्दगी। कभी कभी  नहीं आता की चौराहे पर खड़े हैं या दो दोराहे पर। बस लगता है जिस तरफ ज़िन्दगी चली जा रही , जाने दो। और फिर कुछ समय बाद लगता है कि यूं ही चलता तो कितना अच्छा था। कभी लगता है की कितना कुछ पाना है, कभी लगता है कितना कुछ खो दिया। कितनों को खो दिया , कितने छूट गए और कितने साथ रह गए। एक बनवारी की दुकान जैसे लगती है ज़िन्दगी।


ये दरिया-ए-ज़ीस्त है दोस्त,
जो बहता है तो बहने दो,

दरिया का हर पल समन्दर है,
ग़र जिंदा रहता है तो रहने दो,

खामोशियाँ काबिज़ हैं धडकनों पर,
दिल कुछ कहता है तो कहने दो,

मेरे बिना मैं रह लेता हूँ जब,
वो कुछ सहता है तो सहने दो,

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